रिव्यु ऑफ सिने अड्डा (10 सितंबर 2017)


हमारे प्राथमिक स्कूलों में निहायत ग़ैर ज़रूरी चीजों पर निहायत ग़ैर ज़रूरी जोर दिया जाता है | ‘अनुशासन’ उनमें से एक है | और स्कूल में अनुशासन का मतलब क्या है – शिक्षक की बात को अक्षरशः मानना | जब तक हम शिक्षक के कहे अनुसार करते रहते हैं, हम अत्यंत सुशील, अनुशासित, विनम्र, जहीन और सब कुछ होते हैं| पर जैसे ही हम अपने मन का करने की कोशिश करते हैं, हम अनुशासनहीन और शैतान हो जाते हैं, और हमें दंड देकर सुधारने की कोशिश की जाती है | इस तरह स्कूल एक जेल में बदल जाता है | बच्चे जेलर की बात सुनते और करते रहे तो ठीक, नहीं तो दंड |

कलास्रोत (cineअड्डा), अलीगंज ने बीते शनिवार को The Chorus (French: Les Choristes) नाम की 2004 में बनी Christophe Barratier द्वारा निर्देशित फ्रेंच फिल्म का प्रदर्शन किया जो इस बात की गवाह है | फिल्म में एक संगीतप्रेमी ‘matheu’ जब शिक्षक बन कर एक स्कूल में आता है तो कैसे वह वहां अतिशय अनुशासन की कडुआहट को सुरों की मासूमियत भरी मिठास से दूर करने की कोशिश करता है | उसमें उसे किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है यह फिल्म में बखूबी दर्शाया गया है | पर हमारे समाज में कितने शिक्षक matheu बनने की चुनौती स्वीकार करने की हिम्मत जुटा पाते हैं?

हमारे स्कूल बच्चों को शोषण सहना सिखाने के केंद्र बने हुए हैं | उन्हें वहां आवाज दबा कर जिन्दा रहने की तालीम दी जाती है | मजे की बात यह है कि अधिकांश माँ-बाप भी यही चाहते हैं कि बच्चा तथाकथित ‘discipline’ में रहे | असल में उन्हें भी ऐसी ही तालीम मिली है, उनके स्कूलों में | इसका असर यह होता है कि बच्चे बड़े होने के बाद भी पूरी जिंदगी कभी भी अपनी बात खुल कर नहीं कह पाते, अपने मन का नहीं कर पाते, और ताउम्र दूसरों के कहे पर खटते रहते हैं | और जो अपने मन की कहने-करने की कोशिश करते हैं, उन्हें या तो असामाजिक और अपराधी करार दिया जाता है या फिर तथाकथित सफेदपोश बुद्धिजीवियों द्वारा मार दिया जाता है (सफ़दर हाशमी, राजीव दीक्षित, छत्रपाल, गौरी लंकेश) जॉन हॉल्ट ने अपनी पुस्तक “How Children Fail” में लिखा है कि स्कूल बच्चों को फेल होने के लिए ही तैयार करते हैं | स्कूलों में बच्चे न तो अपने मन की बात कह सकते हैं, न अपने मन का पढ़ सकते हैं, न अपने मन का लिख सकते हैं, उन्हें तो वही करना होता है, वही पढ़ना होता है, वही लिखना होता है जो शिक्षक कहे | ऐसा तो जेल में ही होता है न ?
गुडगाँव के रेयान जैसे महंगे स्कूल में 7 वर्ष के मासूम की निर्मम हत्या पर हो रही चर्चाओं के परिप्रेक्ष्य में इस फिल्म का प्रदर्शन अत्यंत महत्वपूर्ण है | किस तरह अतिशय अनुशासन और दंड अपराध और हत्या की दहलीज तक जा पहुंचते हैं, यह फिल्म इसका उदहारण है |

ऐसे में कला और कलाकार ही इस संसार के बच्चों को यंत्र बनने से बचाने का काम कर सकते हैं | कला में अपने मन की करने की पूरी छूट होती है, चाहे वह सिनेमा हो, चाहे गीत-संगीत, चाहे चित्रकारी हो या शिल्प, या फिर कहानी, कविता, ड्रामा | आज के विकट दौर में कहीं छांव है तो वह है कला में।

cineअड्डा को कोटिशः धन्यवाद जो उन्होंने पहल की | इस तरह की offbeat कला को प्रश्रय देना और उसका प्रदर्शन करना दोनों ही दुरूह कार्य है, जिसे कलास्रोत धीरे-धीरे अपने सिमित संसाधनों से बढ़ा रहा है | अलीगंज, लखनऊ में लगभग 100-150 मीटर की दूरी पर एक सीध में दो कलादीर्घाओं का अस्तित्व अपने आप में विलक्षण है| ललित कला अकादमी की कलादीर्घा भी उत्कृष्ट कलाकारों की प्रदर्शनियां लगाती है| हलांकि वह सरकारी है और साधन संपन्न भी, लेकिन वहां पर विविधता की कमी है | मुझे लगता है कि कलास्रोत को शायद 4-5 साल हुए होंगे यहाँ पर पैर जमाए, लेकिन जिस तरह उन्होंने विविध कला रंगों में लखनऊ वासियों को सराबोर करने की कोशिश की है वह काबिले तारीफ है | आशुतोष और उनकी टीम का प्रयत्न निष्फल नहीं होगा |

आगामी प्रस्तुति की प्रतीक्षा में - दत्तात्रय गोखले